Thursday, May 13, 2010

____लड़कियाँ____


मौसम की पहली बारिश से
धरती की कोख़ में दबे
बीज से निकले नन्हे बिरवे
बिल्कुल ऐसे ही लगते हैं
जैसे माँ की कोख़ से
धरती पर आई
नन्ही-सी लड़की के
कोमल से चेहरे
पे स्वछंद हँसी…

लड़की बिल्कुल वैसे ही बढ़ती है
जैसे तेज़ आंधी
गर्म धूप
और बारिश की मार सहते हुए
बढ़ते हैं बिरवे
पौधा बनने के लिए
कोयल की कूक से
कूक मिलाती लड़की
उड़ जाना चाहती है आकाश में
चाहती है
देख सके बादलों के पार
ये अपार संसार
कि तभी
उसके पंख काट लिए जाते हैं
बिल्कुल ऐसे
जैसे पौधों में
नए ताज़ा हरे पत्तों को
खा जाती हैं गाय-बकरियाँ
क्योंकि लड़कियाँ
पैदा नहीं होतीं
बनाई जाती हैं

ठीक वैसे
जैसे क़ैद कर लेते हैं हम
पौधे के ख़ूबसूरत आकाश को
अपने घर के कोने में
एक गमले के अन्दर
और ध्यान रखते हैं
कि एक भी पत्ता
लांघ न पाए परिधि
क्योंकि जानते हैं
जिस दिन भी पत्ते
लांघ जाएंगे परिधि
लड़कियाँ डाल देंगी
उस पर झूले
तोड़ देंगी
उस ज़ंजीर को
जिसमें रोशनी को
क़ैद किया गया है…
________(Poet- शंभू शिखर)

No comments:

Post a Comment