Saturday, November 27, 2010
बिहार चुनाव में बत्तीस महिला बनी विधायक
बिहार के विधानसभा चुनावों ने न सिर्फ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को प्रचंड बहुमत देकर दोबारा सत्ता में पहुंचाया है बल्कि महिलाओं को भी विधानसभा में 1962 के बाद सबसे ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला है. 32 महिलाएं एमएलए बनी हैं.
खास बात यह है कि चुनाव में उतारे गए उम्मीदवारों में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 8.74 प्रतिशत ही थी. साढे पांच करोड़ मतदाताओं के बीच पचास प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाली बिहार की महिलाओं में से बहुत कम ही पुरूषों के दबदबे वाली राज्य की राजनीति में जगह बना पाई हैं.
अगर पांच मुख्य पार्टियों सत्ताधारी जेडीयू और बीजेपी, विपक्षी आरजेडी, एलजेपी और कांग्रेस के साथ वामपंथियों के उम्मीदवारों की फेहरिस्त पर नजर डाले तो कुल 90 महिलाओं को टिकट दिया गया. जेडीयू ने सबसे ज्यादा 24 और बीजेपी ने 11 महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा. वहीं मौजूदा स्वरूप में महिला आरक्षण बिल का विरोध करने वाली आरजेडी ने छह और एलजेपी ने सात महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाया.
इससे जाहिर होता है कि महिलाओं की तरक्की की राह में कितने रोड़े हैं. सामाजिक कार्यकर्ता निवेदिता कहती हैं कि महिलाओं के लिए अब भी घर की चार दीवारी को ही बेहतर समझा जाता है और राजनीतिक के अखाड़े से उन्हें आमतौर पर दूर ही रहने को कहा जाता है. वह कहती हैं कि अगर कुछ महिलाएं सफलता की सीढ़ी चढ़ भी लेती हैं तो अपने ऊपर घर वालों की तरफ से होने वाली ज्यादतियों पर वे चुप ही रहती हैं.
बुधवार को आए बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के मुताबिक सत्ताधारी जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने 206 सीटें जीतीं जबकि विपक्षी आरजेडी-एलजेपी गठबंधन को 25 सीटों से ही संतोष करना पडा. कांग्रेस के खाते में चार सीटें आई जबकि और झारखंड मुक्ति मोर्चा और सीपीआई को एक-एक सीट मिली है. अन्य के हिस्से 6 सीटें आई हैं
Thursday, November 25, 2010
ऐसा गांव है जहां घर की बेटी को स्कूल नहीं भेजने पर जुर्माना लगता है
बाड़मेर पंद्रह साल पहले खुद गांव वालों के बनाए नियम ने बाड़मेर से 25 किलोमीटर दूर डूंगेरों का तलाÓ गांव की बेटियों की तकदीर संवार दी। यह ऐसा गांव है जहां घर की बेटी को स्कूल नहीं भेजने पर जुर्माना लगता है। नतीजा हर बेटी यहां पढऩे जाती है।20 साल पहले यहां एक भी लड़की पढ़ी-लिखी नहीं थी। दो दशक पहले तक समाज में फैली कुरीतियों के कारण ग्रामीण बेटियों को स्कूल भेजने से कतराते थे। 1995 में एक सामाजिक सम्मेलन में इस बारे में चर्चा छिड़ी। इसके बाद गांव के बड़े-बुजुर्गो ने एक जाजम पर बैठकर हर घर की बेटी को शिक्षित करने का नियम बना दिया। इस नियम का पालन नहीं करने पर जुर्माना वसूलने का निर्णय लिया गया। गांव में केवल उच्च प्राथमिक स्तर तक का स्कूल है। ऐसे में बालिकाओं को आगे की पढ़ाई के लिए रोज छह किलोमीटर पैदल चलकर सनावड़ा गांव स्थित सीनियर सैकेंडरी स्कूल जाना पड़ता है। बावजूद इसके यह दृढ़ संकल्प का नतीजा ही है कि दो सौ परिवारों वाले डूंगेरों का तला में छात्र सिर्फ 180 हैं और 225 छात्राएं हैं। आज भी यहां की कई ढाणियों में बिजली नहीं है। छात्राएं चिमनी की रोशनी में पढ़ाई करती हैं। इस नियम से प्रेरित होकर पड़ोसी गांव रामदेरिया व हाथीतला के ग्रामीणों ने भी अपनी बेटियों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया है। डूंगेरों का तला की छात्राओं ने खेलों में अपने दमखम से राष्टरीय स्तर पर जिले का नाम रोशन किया। राजकीय सीनियर सैकेंडरी स्कूल सनावड़ा में पढ़ रही छात्राएं राज्य स्तर पर खो-खो में पिछले दस वर्षो से बाड़मेर जिले का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। छात्रा माया] वीरो] नेमी] प्रिया व पेंपी का खो-खो प्रतियोगिता के लिए राष्टरीय स्तर पर चयन हुआ। इसी तरह उच्च प्राथमिक स्कूल डूंगेरों का तला की तीन छात्राएं भी राष्टरीय स्तर पर खेल चुकी हैं। यह टीम पिछले पांच साल से राज्य स्तर पर प्रथम स्थान हासिल कर रही है
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